बुधवार, 28 दिसंबर 2016

मालव भूमि की विराट शब्द-यात्रा

मालव भूमि की विराट शब्द-यात्रा: अक्षर पगडंडी
डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
मालवी साहित्य और संस्कृति के अन्यतम हस्ताक्षर श्री झलक निगम (1940-2010 ई.) एक साथ अनेक दिशाओं में सक्रिय थे। उन्होंने मालवी को कई दृष्टियों से समृद्ध किया है। एक ओर उन्होंने मालवी साहित्य को अनेक महत्त्वपूर्ण कविताएँ और गद्य रचनाएँ देकर समृद्ध कियावहीँ एक श्रेष्ठ अनुवादकसंपादकशोधकर्ता के रूप में विविधमुखी अवदान दिया। उनकी रचनाओं में प्रयोगधर्मिता उभार पर हैजिसके लिए वे विशिष्ट पहचान रखते हैं। झलक जी का कौशल सर्वथाअनछुएअलक्षित विषयों को कविता में ढालने में दिखाई देता है। वे दिनों दिन बढ़ते कथित महानगरीकरण में ओझल होते लोक-जीवन के उन दृश्यों को अनायास पकड़ लेते हैंजो हमारी जैविकता के प्रमाण रहे हैं। उनके मालवी कविता संग्रहों में एरे मेरे की कविता’ (2003 ई.) एवं उजालो आवा दो’ (2006) विशेष उल्लेखनीय हैं। भाँत भाँत की कविता’ शीर्षक एक संग्रह उनके निधन के बाद 2011 में प्रकाशित हुआ। झलक निगम उन कवियों में एक हैंजिन्होंने मालवी कविता की बनी-बनाई लीक को तोड़ने की कोशिश की। साथ ही अपने ढंग से उसे नए सिरे से बनाने की कोशिश भी की। मालवी या किसी अन्य लोक बोली में श्री निगम जैसे साहसी कवि कम ही नजर आते हैंजिन्होंने पुराने और नए दौर की लोक कविता के बीच सेतु की भूमिका निभाई है। उनकी रचनाधर्मिता वर्ण्य-विषय और भाषा की एक नई दुनिया खोलती है। छन्द और लय के संस्कारों के बावजूद लोक-कविता को छंद से मुक्त करने से लेकर नई संवेदनाओं और नए विचारों को नए अंदाज में व्यक्त करने के झलक जी के प्रयत्न महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए।

मालवी में स्वतंत्र पत्रिका के अभाव की पूर्ति सबसे पहले नरेन्द्र श्रीवास्तव नवनीत’ एवं झलक निगम के संपादन में प्रकाशित फूल-पाती’ से हुईजिसके अब तक कई अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इसी कड़ी में श्री झलक निगम के संपादन में वार्षिक पत्रिका जगर मगर’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। उनके निधन के बाद श्री निगम की सुपुत्री जेड. श्वेतिमा निगम इसका कुशल संपादन कर रही हैं। जगर मगर’ के अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए हैं। झलक जी द्वारा संस्थापित मालवी की इन अव्यावसायिक पत्रिकाओं के प्रकाशन से आज इस क्षेत्र में बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हो रही है।
झलक निगम लम्बे समय से मालवी की विशिष्ट शब्दावली पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने सुगम राजपथ पर न चलते हुए अक्षर की पगडण्डी पर चलना स्वीकार किया। उनकी इस अत्यंत परिश्रमपूर्वक की गई यात्रा की उपलब्धि है यह पोथी। ‘अक्षर पगडंडी शीर्षक ग्रन्थ झलक जी के जीवन की बड़ी साध और साधना का साकार रूप हैजिसकी पूर्णता के लिए उन्होंने दशकों तक कार्य किया। गाँव-गाँवडगर-डगर घूमते हुए वे एक सजग शब्द-संग्राहक के रूप में अपनी झोली भरते रहे और फिर एक जिज्ञासु की तरह उन शब्दों की व्युत्पत्तिकाल-प्रवाह में आए अर्थ परिवर्तन की मीमांसा करते रहे। यह सुखद है कि उनकी सुपुत्री जेड. श्वेतिमा निगम ने उनकी डायरी और अलग-अलग पन्नों में बिखरे इन शब्द-मोतियों को सँजोने का सार्थक उद्यम किया हैजो हमारे समक्ष है।
झलक जी स्वयं मालवी के विशिष्ट शब्दोंमुहावरों और कहावतों के सजग प्रयोक्ता भी रहे हैं। जीवन से कविता तक वे मालवी की समृद्ध शब्द-राशि का अर्थपूर्ण इस्तेमाल करते रहे। इसीलिए झलक जी की कविताएँ सही अर्थों में लोक हृदय का सार्थक प्रतिबिंब बन पड़ी हैं। वहाँ हमारे युग जीवन की आहट और सामयिक दबाव तो कारगर दिखाई देते ही हैइनसे परे जीवन के शाश्वत प्रवाह के साथ बहने कामालवा के ऋतु-रंग और पर्यावरण में डूबने का सहज व्यापार भी मुखरित हुआ है। उनकी एक कविता में मालवी शब्दावली के सजग प्रयोग से सम्पन्न परिवेश के साथ काले बादल का खिलदंड़ापन हमें उसी तरह आनंदित करता हैजैसा किसी धरती पुत्र किसान या कामगार को। कवि हमें उसके स्वागत में मालवी लोक-संस्कृति के आचार-व्यवहार के साथ ला खड़ा कर देता है।
                घणा हऊ बखत पे आया हो
                म्हूँ गाम का आड़ी तो
                तमारे नारेल चड़ऊँ
                दूध ढोलू
                अगवानी में कंकू अखत चड़ऊँ
                ओ झरता झरमट करता बादला

इसी तरह भारतीय समाज व्यवस्था के विसंगत चेहरे का साक्षात् कराती हाली प्रथा’ को कवि श्री निगम ने चीन्हा और उसे अपनी कविता में साकार किया। वे देखते हैं कि आज भी बड़ी संख्या में हाली हैंजो बंधुआ मजदूर से भी बदतर जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें न दिन में चैन है और न रात में आराम। उस पर यह कहावत ‘‘हाली मवाली को कई है या जात भरोसे का लायक होयज नी है।’’ हाशिये के ऐसे यशहीन लोगों की व्यथा को कवि ने गहरी सहानुभूति के साथ उकेरा।
              घाणी का बैल जस भमता रेवे
              फेर भी जस कोनी हाली का भाग में
              दुनियां काँ जई रीऊन्के नी मालम
             देस में कून राजा कुन पाल्टी को राज।  
लोकभाषाओं के शब्दकोश तो अनेक बने हैंकिन्तु विशिष्ट शब्दावली, जिसमें पारिभाषिक शब्दावली भी समाहित होती है, के विवेचनात्मक परिचय को लेकर बहुत कम कार्य ही हुए हैं।राजस्थानी, भोजपुरी, अवधी, ब्रजी जैसी कुछ लोकभाषाओं में इस तरह का कार्य हुआ है। मालवी में कथाकार स्व. चंद्रशेखर दुबे ने जिंदगी के गीत पुस्तिका में इस तरह के चुनिन्दा शब्दों का संकलन कर परिचय दिया था। उसी पथ पर आगे चलकर श्री झलक निगम ने मालवी में इस तरह की विशिष्ट शब्दावली के संग्रह के अभाव की पूर्ति ‘अक्षर पगडंडी के माध्यम से की है।
लोक के शब्द लंबी यात्रा करते हैं। झलक निगम द्वारा तैयार इस कोश में ऐसे कई शब्द हैं जो काल प्रवाह में गति करते हुए अपनी पहचान को बरकरार रखे हैं। जैसे दान के रूप में अर्पित की जाने वाली अखोतीअक्षत का ही रूप है। पंचामृत दूधदहीघीशहद और शकर के मेल से निर्मित प्रसाद है तो पंजेरी पिसे हुए धनिये के साथ शकर या गुड़ का मिश्रण हैजो कृष्ण जन्माष्टमी पर पूजा में अर्पित किया जाता है। काशी जाना यज्ञोपवीत के अवसर पर विद्याध्ययन के लिए प्रवृत्त होने का प्रतीक हैवहीं पस्ताव तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान की क्रिया हैजो अपशकुन से बचाव के लिये की जाती है। इसमें तीर्थयात्री अपना सामान पहले किसी परिचित के यहाँ रख देते हैंबाद में वास्तविक यात्रा प्रारम्भ करने पर वहीं से सामान उठा कर चल देते हैं।
इस शब्द संचयन में संकलित शब्द कई प्रकार के हैं। उदाहरण के रूप में कृषि एवं व्यवसाय संबंधीपारंपरिक ज्ञानविज्ञानपरक,  लोकाचारपरकसंस्कारपरक, क्रीड़ा, कला एवं मनोरंजनपरकलोक-देवता एवं पर्वोत्सव संबंधी, वस्तु संबंधीविशिष्ट क्रियापरक, शृंगार एवं वस्त्राभूषण संबंधीलोक-विश्वासपरक आदि। संग्रह के बहुत से शब्द मालवा में प्रचलित लोकाचारों का संवहन करते हैं। उदाहरण के रूप में संजा, मांडना, हिरणी, वलसो,मौसर, नातरा, तेड़ा, मांडवो, जलवा, आदि। क्रीड़ा, कला एवं मनोरंजनपरक शब्दों में सतोलिया, माच, छुपमछई, कामण आदि को देखा जा सकता है। कृषि एवं व्यवसाय संबंधी विशिष्ट शब्दों में वखार, वावस्यां, निहरनी आदि उल्लेखनीय हैं। शृंगार एवं वस्त्राभूषण संबंधी शब्दों में कांकण, कांचली, ओढ़नी आदि को देखा जा सकता है।    
झलक जी ने कई विलुत होती परम्पराओंरीति-रिवाजों और वस्तुओं से जुड़े पारिभाषिक शब्दों को भी इस कोश में स्थान दिया है। हीड़बेकड़ली आदि इसी प्रकार के शब्द हैं। बेकड़ली घर-घर जाकर अनाज मांगने की प्रथा हैजो अब लगभग विलुप्ति के कगार पर है। हीड़ मालवा की प्रबन्धात्मक वीरगाथा हैजो बगड़ावत के रूप में सुविख्यात है।
इस संग्रह में कई पारंपरिक ज्ञान-विज्ञानपरक शब्द भी संचित हैं, जैसे चींटियों के आवास को मालवी में कीड़ी नगरा कहा जाता है। मगर-कोदो वह पौधा है, जो जलराशि के किनारे पनपता है और उसे मगर बड़े चाव से खाता है। थुवर, थाला, थागतेलन (एक विशिष्ट कीड़ा), छुईमुई, छेक, घट्टी की माकड़ी, गोयरा, काबर, ओरा, हात्या आदि भी इसी प्रकार के हैं, जिनसे पारंपरिक ज्ञान का संवहन होता आ रहा है।
समग्रतः यह पोथी एक लोक-मनीषी की शब्द साधना का साकार रूप है। इस संचयन के लिए झलक जी ने बड़ी दुरूह राह अपनाई थी। मालवीप्रेमियों, साहित्यकारों के साथ ही आने वाले शोधकों के लिए उनका यह प्रयत्न अत्यंत उपयोगी और प्रेरणास्पद सिद्ध होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।      

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय,उज्जैन 




गुरुवार, 17 नवंबर 2016

धर्मराजेश्वर मन्दिर और बौद्ध गुफा शृंखला: प्रकृति के सुरम्य अंचल में आस्था और सभ्यता का अनुपम दृष्टान्त - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Dharmarajeshwar Temple and Buddhist Cave Series: A Unique Example of Faith and Civilization in the Picturesque Region of Nature - Prof. Shailendrakumar Sharma


धर्मराजेश्वर मन्दिर और बौद्ध गुफा शृंखला : प्रकृति के सुरम्य अंचल में आस्था और सभ्यता का दृष्टान्त | Dharmarajeshwar Temple and Buddhist Cave Series: A Unique Example of Faith and Civilization in the Picturesque Region of Nature

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendrakumar Sharma

मालवा की समृद्ध स्थापत्य कला विरासत के अनन्य प्रतीक धर्मराजेश्वर के शिला निर्मित मन्दिरों और बौद्ध विहारों का अवलोकन स्मरणीय अनुभव बन पड़ा। मध्य प्रदेश के मन्दसौर जिलान्तर्गत शामगढ़ के समीप चन्दवासा (गरोठ) की मनोरम पहाड़ियों को काट कर बनाए गए ये आराधनालय वैश्विक कला विरासत का बेजोड़ उदाहरण हैं। बौद्ध वाङ्मय में उल्लिखित यह स्थान प्राचीन काल में चन्दनगिरि के नाम से प्रसिद्ध था, जिसका प्रभाव समीपस्थ कस्बे चन्दवासा (चन्दनवासा) की संज्ञा में देखा जा सकता है।

लोक किंवदंतियों के बीच भीम द्वारा निर्मित देवालय और गुफाओं के रूप में इनकी चर्चा रही है। धर्मराजेश्वर मन्दिर की तुलना एलोरा के कैलाश मन्दिर से की जाती हैं, क्‍योकि यह मन्दिर भी कैलाश मन्दिर के समान ही एकाश्म शैली में निर्मित है। 8वीं शती में निर्मित इस मन्दिर के लिए विराट पहाड़ी को खोखला कर ठोस प्रस्‍तर शिला को देवालय में बदला गया है। अपनी विशालता, सौंदर्य और कलात्मक उत्‍कृष्‍टता के लिये इस मन्दिर की प्रसिद्धि है, जो 54 मीटर लम्‍बी, 20 मीटर चौडी और 9 मीटर गहरी चट्टान को तराशकर बनाया गया है। उत्तर भारत के मन्दिरों की तरह इस मन्दिर में भी द्वार-मण्‍डप, सभा मण्डप, अर्ध मण्डप, गर्भगृह और कलात्मक शिखर निर्मित हैं।








मध्‍य में एक विशाल मन्दिर है, जिसकी लम्‍बाई 14.53 मीटर तथा चौडाई 10 मीटर हैं, जिसका उन्‍नत शिखर आमलक तथा कलश से युक्‍त है। मन्दिर में महामण्‍डप की रचना उत्कीर्ण की गई है, जो पिरा‍मिड के आकार में है। धर्मराजेश्वर मन्दिर की सुन्‍दर तक्षण कला यहाँ आने प्रत्येक व्यक्ति को पत्‍थर में काव्य का आभास कराती है। प्रतिहार राजाओं की स्थापत्य कलाभिरुचि यहाँ देखने को मिलती है। प्रशस्त शिवलिंग और चतुर्भुज श्रीविष्णु की प्रतिमा मुख्य मंदिर में स्थापित हैं। मुख्य मंदिर के चारों ओर बने छोटे-छोटे मंदिरों में भी 8वीं शताब्दी की मूर्तियां हैं। इनमें एक मूर्ति दशावतार भगवान विष्णु की है, जो तीन भागों में टूटी हुई है। पहले विष्‍णु मंदिर बनाया गया था, जिसे बाद में शिव मंदिर का रूप दिया गया।






 धर्मराजेश्वर मंदिर का शिखर


काउजन के अनुसार पहले यह वैष्णव मंदिर था। बाद में शैव मंदिर में बदल दिया गया। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में मध्य में शिवलिंग विराजमान है तथा दीवार पर विष्णु की प्रतिमा है। मुख्य द्वार पर भैरव तथा भवानी की प्रतिमाएँ हैं, जिनके कलात्मक स्वरूप को सिन्दूर से अलग रूप दे दिया है। मुख्य मंदिर के आसपास सात छोटे मंदिर हैं। इनमें एक में सप्तमातृकाओं सहित शिव के तांडव नृत्य का अंकन है। लघु मन्दिरों में शेषशायी विष्णु, दशावतार के पट्ट भी हैं। वहीं कुछ लघु मंदिर प्रतिमा रहित हैं। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है।




धर्मराजेश्वर दिल्ली-मुम्बई रेल मार्ग पर स्थित शामगढ़ से 20 किमी दूर है। इस जगह को भीम नगरा भी कहते है। जनश्रुति के अनुसार भीम ने चंबल नदी से विवाह करना चाहा, तो चंबल ने एक ही रात में पूरा शहर बसाने की शर्त रखी, किन्तु शर्त पूरी नहीं हो सकी और भीम पत्थर का हो गया। धमनार की गुफाएं वास्तव में 4-5 वीं शती में निर्मित बौद्धविहार हैं। 





धर्मराजेश्वर मंदिर का गलियारा 








इतिहासकारों में सबसे पहले जेम्स टाड 1821 ई में यहां आये थे। अपने जैन गुरु यतिज्ञानचन्द्र के कथन पर इन्हें जैन गुफा बताया। जेम्स टाड ने अश्वनाल आकृति की शैल शृंखला में लगभग 235 गुफाओं की गणना की थी, किन्तु जेम्स फर्गुसन को 60-70 गुफाएं ही महत्वपूर्ण लगीं।



























लगभग 2 किमी के घेरे में फैली गुफाओं में भी 14 गुफाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। छठी गुफा बड़ी कचहरी के नाम से पुकारी जाती है। यह वर्गाकार है तथा इसमें चार खंभों का एक दालान है। सभा कक्ष 636 मीटर का है। 8वीं गुफा छोटी कचहरी कहलाती है। 9वीं गुफा में चार कमरे हैं। चौथे कमरे में पश्चिम की तरफ एक मानव आकृति उत्कीर्ण है। 10वीं गुफा राजलोक रानी का महल अथवा 'कामिनी महल' के नाम से प्रसिद्ध है। 11वीं गुफा में चैत्य बना हुआ है। इसके पार्श्व में मध्य का कमरा बौद्ध भिक्षुओं की उपासना और ध्यान का स्थान था। पश्चिम की ओर बुद्ध की दो प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। 12वीं गुफा हाथी बंधी कहलाती है। इसका प्रवेश द्वार 16 1/2 फिट ऊंचा है। 13वीं गुफा में कई बड़ी-बड़़ी बुद्ध मूर्तियां हैं।





बौद्ध विहार







गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद आज से लगभग 1500 साल पहले बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और व्यापार के लिए एक देश से दूसरे देश तक भ्रमण करने वाले व्यापारियों की मदद ली जाती थी। गुप्त काल में व्यापारियों के लिए समुद्र तट तक पहुंचने के प्रचलित मार्ग में ही मंदसौर का धमनार बौद्ध विहार भी बना था। बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा के लिए यहाँ विहार हुआ करता थे, जहां व्यापारी भी कुछ समय ठहर कर विश्राम करते थे।


प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवम् 
विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन



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